Monday, February 28, 2011

एक सवाल प्रधानमंत्री से


एक सवाल प्रधानमंत्री से

रेणु अगाल रेणु अगाल | शुक्रवार, 14 जनवरी 2011, 17:51 IST
प्रधानमंत्री जी, आप कहते हैं कि लोग ज़्यादा और बेहतर खाने लगे हैं इसलिए खाद्य पदार्थों की मांग बढ़ गई है और इसलिए उनकी क़ीमतें बढ़ रही हैं.
आपका कहना है कि यह सरकार की सामाजिक न्याय दिलवाने की पहल का ही नतीजा है क्योंकि देश में बहुत से लोगों को इसका फ़ायदा हुआ है, उनकी आमदानी बढ़ी और वे अच्छा खा-पी सकते हैं.
पर आख़िर कौन हैं ये लोग प्रधानमंत्री जी? और वो कौन सी योजना है जो उन्हें बेहतर जीवन दे रही है?
आपकी सरकार ने एक योजना शुरु की है जिसका नाम महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून (मनरेगा) है.
इस योजना के अंतर्गत गांवों में रह रहे हर परिवार के व्यक्ति को कम से कम 100 दिन का रोज़गार साल में मिलता है. अब आपने महंगाई के मद्देनज़र मेहनताना भी 100 रुपये प्रतिदिन से बढ़ाकर 120 रुपए के आसपास कर दिया है. इस तरह से देखें तो साल में हर ग्रामीण परिवार को 12 हज़ार रुपये तो मिलेंगे ही.
12 हज़ार रुपए, वाह! गांववालों की तो चांदी हो गई... लेकिन ज़रा रुकिए..12 हज़ार रुपये मतलब 32 रुपये रोज़. मान लिया जाए कि यह मनरेगा में काम करने वाले के परिवार की कुल आमदनी है.
अब आज की महंगाई देखिए. दाल, चावल से लेकर दूध, अंडे और माँस-मछली तक सभी के दाम कहाँ पहुँच गए हैं? आपकी सरकार के आंकड़े कह रहे हैं कि खाद्य पदार्थों की महंगाई की दर 18 प्रतिशत तक बढ़ गई है.
क्या आपने कभी सोचा है कि इस महंगाई में 32 रुपए रोज़ कमाने वाले परिवार की थाली में क्या परोसा जाता होगा?
आपके घोषित उत्तराधिकारी राहुल गांधी तो कभी-कभी दलितों के घर पर जाते रहे हैं कभी उनसे पूछिएगा कि उनकी थाली कैसे भरती है और क्या दिन में दोनों वक़्त ठीक से भरती है?
आंध्र प्रदेश से लेकर मध्यप्रदेश तक आज भी किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आ रही हैं. जब आपकी सरकार समृद्धि फैला रही है तो ये नासमझ क्यों आत्महत्या कर रहे हैं मनमोहन जी?
कौन है वह जिसे आपकी सरकार आम आदमी कहती है?
चलिए उनकी बात करें जो आपके मनरेगा के भरोसे नहीं हैं. जो रिक्शा चलाता है, ऑटो चलाता है, ड्राइवरी करता है, दुकान में काम करता है या घरेलू काम करता है. वो बहुत कमाता है तो पाँच-सात हज़ार रुपया महीना कमाता है. चार लोगों का आदर्श परिवार भी हो तो घर का किराया देने के बाद उसके पास खाद्य सामग्री ख़रीदने के लिए कितना पैसा बचता होगा मनमोहन जी? और फिर उसे बच्चों की पढ़ाई के लिए, कपड़ों के लिए और गाहे-बगाहे होने वाली बीमारी के लिए भी तो पैसा चाहिए?
चलिए अपने राजप्रासाद से निकलिए किसी दिन चलते हैं आपके आम आदमी से मिलने.
और मनमोहन जी जब आप ऐसे बयान दें तो अपनी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी कुछ जानकारी दे दिया करें.
देखिए ना, अभी दो दिन पहले एक राष्ट्रीय कहे जाने वाले अख़बार में अपने नाम से लेख लिखा है और कहा है कि देश की 40 प्रतिशत आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है, 9.3 करोड़ लोग झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं, 12.8 करोड़ को साफ़ पानी नहीं मिलता, 70 लाख बच्चे शिक्षा से कोसों दूर हैं.
ये तो आपके आम आदमी से भी गए गुज़रे लोग दिखते हैं.
तो फिर प्रधानमंत्री जी कौन हैं वो लोग जो बेहतर खा रहे हैं और महंगाई बढ़ा रहे हैं?
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Tuesday, November 9, 2010

'बहुत कुछ सुनना पड़ा है'

बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र हम उन लोगों के अनुभव आपसे साझा कर रहे हैं जो बिहार से बाहर रह रहे हैं. उन्होंने बिहारी होने के कारण क्या देखा, सोचा और जाना. इसी शृंखला में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सुबोध नारायण मालाकार के अनुभव.
मैं बिहार के अत्यंत पिछड़े इलाक़े सहरसा से अस्सी के दशक में दिल्ली आया था जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए. बिहार में बड़ा नाम है इस विश्वविद्यालय का.
लेकिन जब मैं आया तो यहां बहुत प्राब्लम हुई थी. यहां सब लोग अंग्रेज़ी बोलते थे. हम अंग्रेज़ी लिख लेते थे लेकिन बोल नहीं पाते थे तो बहुत इंफीरियरिटी कांप्लेक्स होता था.
मैं छात्र नेता था लेकिन एमए तक अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता था. पीएचडी तक भी बहुत अच्छा नहीं हो पाया. आगे चलकर सेमिनार में बोलते बोलते अब दिक्कत नहीं है. ये समस्या बिहार के कई लोगों को होती है. बड़ा अपमानित महसूस करता था.
लोग हंसते थे मेरी अंग्रेज़ी सुन कर लेकिन उनको ये पता था कि मैं बात सही कह रहा हूं. मैं एक बार यूजीसी में रिसर्च एसोसिएट पद के लिए इंटरव्यू देने गया और हिंदी में बात की तो इंटरव्यू लेने वाले ने कहा कि आपको अंग्रेज़ी बोलना चाहिए. वहां नौकरी नहीं मिली. मैं निराश नहीं होता था लेकिन बुरा ज़रुर लगता था.
बिहार वालों के साथ समस्याएं तो होती ही हैं. अंग्रेज़ी बोलना नहीं आता है. लिखते अच्छा है. मैं गांव देहात का हूं. हमारे खाने पीने के तौर तरीके अलग है. मैं अभी भी चम्मच से नहीं खा पाता हूं. हम ऊंगलियों का इस्तेमाल करते हैं. सांस ज़ोर ज़ोर से लेता हूं.
इन बातों पर लोग ध्यान देते हैं और कहीं न कहीं वो इस मामले में हेय दृष्टि से देखते थे लेकिन मैं इस पर गर्व करता हूं.
अंग्रेज़ी बोलना नहीं आता है. लिखते अच्छा है. मैं गांव देहात का हूं. हमारे खाने पीने के तौर तरीके अलग है. मैं अभी भी चम्मच से नहीं खा पाता हूं. हम ऊंगलियों का इस्तेमाल करते हैं. सांस ज़ोर ज़ोर से लेता हूं
सुबोध मालाकार
जब दक्षिण भारत के लोग अंग्रेज़ी बोलते हैं तो क्या वो अलग नहीं होता है लेकिन उन पर कोई हंसता नहीं है.. मैं तो ये कहता हूं कि बिहार के लोगों को अपना बिहारीपन बरकरार रखना चाहिए क्योंकि यही उनकी खूबी है.
यहां बस में चढ़िए और कुछ ग़लती हो जाए तो लोग कहते हैं कि बिहारी है लेकिन लोग मानते हैं कि बिहार के लोगों में शैक्षणिक ताकत है और दिल्ली में तो संख्या बल भी बिहारियों का हो गया है.
बिहार के लोगों को बहुत कुछ सुनना पड़ता है इसमें दो राय नहीं लेकिन उनको अपनी मेहनत, अपना तरीका बरकरार रखना चाहिए क्योंकि यही उनकी पहचान है और इसी से वो आगे भी बढ़ सकते हैं.
मैं प्रोफेसर हूं लेकिन अभी भी जब बोलता हूं तो लोग समझ जाते हैं कि बिहार का हूं.. इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है. मैं बात क्या कह रहा हूं वो महत्व रखता है और मैं कायदे की बात कहता हूं.
(बीबीसी संवाददाता सुशील झा से बातचीत पर आधारित)
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Based on BBC news